ओशो की रहस्यमयी ज़िंदगी: प्रोफेसर से भगवान तक की जर्नी और अनसुने विवाद

नमस्कार साथियों,
आज हम बात करने जा रहे हैं एक ऐसे शख्स की, जिसकी जिंदगी सिर्फ एक इंसान की नहीं, बल्कि एक क्रांति की कहानी बन गई। एक ऐसा इंसान जो कभी एक कॉलेज का फिलॉसफी प्रोफेसर था, फिर स्पिरिचुअल गुरु बना और फिर कहलाया — भगवान ओशो।

लेकिन यह सिर्फ एक नाम की यात्रा नहीं थी, ये एक विचारधारा, एक आंदोलन और कई रहस्यों से भरी हुई कहानी थी। तो आइए, जानते हैं आचार्य रजनीश से ओशो बनने तक की यह पूरी कहानी, जो आज भी लोगों के दिलों और दिमाग में जिंदा है।

ओशो के बारे में और जानने के लिए आप उनकी आधिकारिक वेबसाइट osho.com पर जा सकते हैं।

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बचपन और शुरुआती जीवन

ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव कुचवाड़ा में हुआ था। उनका असली नाम था चंद्रमोहन जैन। परिवार में लोग उन्हें प्यार से रजनीश कहकर बुलाते थे।

बचपन से ही वे बहुत तेज़ दिमाग वाले और क्यूरियस थे। नई चीज़ों को जानने का जुनून और धार्मिक रीति-रिवाज़ों से सवाल करने की आदत उन्हें दूसरों से अलग बनाती थी। उनकी दादी का प्रभाव भी उनके सोचने के तरीके पर काफी गहरा था।

प्रोफेसर बनने का सफर

रजनीश ने 1955 में बी.ए. किया और फिर दर्शनशास्त्र (Philosophy) में एम.ए. करने के लिए जबलपुर के हितकारिणी कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन वहाँ उनका तीव्र सवाल पूछने का स्वभाव एक समस्या बन गया।

रजनीश के सवालों से परेशान होकर एक प्रोफेसर ने अंतिम चेतावनी दे दिया – या तो कॉलेज में मैं रहूं या रजनीश! कॉलेज प्रिंसिपल ने उन्हें समझाया और फिर उनका ट्रांसफर डीएन कॉलेज में करवा दिया। वहाँ से 1957 में उनकी टीचिंग जर्नी शुरू हुई और 1960 में वे जबलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बन गए।

स्पिरिचुअल गुरु बनने की शुरुआत

हालांकि वे एक बेहतरीन प्रोफेसर थे, लेकिन उनका असली जुनून था — अपने विचारों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना। इसके लिए वे जगह-जगह शिविर लगाते, धार्मिक परंपराओं और राजनीतिक मुद्दों पर खुलकर बोलते।

उनका बिलकुल साफ़, बिना डरे, और सच बोलने वाला अंदाज़ और बोलने की कला साफ़, प्रभावशाली और भावनात्मक तरीके से बात करना लोगों को आकर्षित करने लगी। धीरे-धीरे लोग उन्हें “आचार्य रजनीश” के नाम से जानने लगे।

नव सन्यास आंदोलन और कंट्रोवर्सी की शुरुआत

1970 में उन्होंने नव सन्यास आंदोलन (Neo-Sannyas Movement) की शुरुआत की। उनका कहना था कि आप सन्यासी बन सकते हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप खुशियाँ, मस्ती और सुकून को छोड़ दें। यह विचार लोगों को बहुत आकर्षित करने लगा।

उनका सोचने और जीवन को देखने का तरीका था कि “त्याग और तपस्या” की जगह, आज़ादी से, पूरे दिल से, जीवन का आनंद लेते हुए जिया जाए। लोगों ने उनके इस नए दृष्टिकोण को तुरंत इसे पसंद किया और अपनाया

ओशो को “सेक्स गुरु” भी कहा जाता था

और इसके पीछे कई कारण हैं, जो इतिहास और मीडिया से जुड़े हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:

🔹 ओशो को “सेक्स गुरु” क्यों कहा गया?

  1. सेक्स पर खुलकर बात करना
    ओशो उन शुरुआती आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे, जिन्होंने भारत जैसे परंपरागत समाज में सेक्स जैसे विषय पर खुलकर बात की
    उन्होंने कहा था कि: “सेक्स को दबाना नहीं चाहिए, बल्कि उसे समझना और उसके पार जाना चाहिए।”
  2. उनकी किताब: “From Sex to Superconsciousness”
    ओशो की यह किताब (हिंदी में “संभोग से समाधि तक”) सबसे विवादास्पद रही।
    इसमें उन्होंने सेक्स को सिर्फ शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि ध्यान और अध्यात्म की दिशा में पहला कदम बताया।
    इस किताब के कारण उन्हें कई धार्मिक संगठनों और मीडिया ने सेक्स गुरु कहना शुरू किया।
  3. आश्रम में ओपन रिलेशनशिप और फ्री सेक्स की अफवाहें
    ओशो के पुणे और फिर अमेरिका (रजनीशपुरम) के आश्रमों में
    • फ्री रिलेशनशिप
    • ओपन सेक्स
    • न्यूड मेडिटेशन
    • और ग्रुप थेरेपी
      जैसी एक्टिविटीज़ की खबरें मीडिया में खूब छपीं।
      इस वजह से ओशो और उनके फॉलोअर्स पर ‘सेक्स कल्ट’ चलाने के आरोप भी लगे।
  4. पश्चिमी मीडिया की भूमिका
    अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया ने ओशो को “Sex Guru from India” जैसे टैग दिए।
    खासकर जब ओशो अमेरिका गए और रजनीशपुरम बसाया, तो वहां के लोग और सरकार ओशो के तरीकों से असहज थे।

🔸 ओशो का जवाब क्या था?

ओशो ने खुद इस “Sex Guru” टाइटल को गलत नहीं माना, बल्कि एक इंटरव्यू में मुस्कराते हुए कहा था:

“अगर सच बोलने से मुझे सेक्स गुरु कहा जाता है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।”

उनका मानना था कि सेक्स को दबाने की बजाय समझकर उसकी ऊर्जा को ध्यान (meditation) में रूपांतरित किया जा सकता है।

पुणे का वह आश्रम जहाँ से गूंजा आज़ादी का आध्यात्मिक संदेश पूरे विश्व में

1974 में ओशो ने मुंबई से शिफ्ट होकर पुणे में अपना आश्रम स्थापित किया। यहाँ देश-विदेश से हज़ारों लोग जुड़ने लगे। बॉलीवुड के सितारे जैसे विनोद खन्ना, और अमेरिका से आए लोग भी उनके भक्त बन गए।

उनकी मेन असिस्टेंट बनी मां योग लक्ष्मी, और बाद में क्रिस्टीना वुल्फ (मां योगा विवेक)। जिस विचारधारा की शुरुआत भारत में हुई थी, वह अब वैश्विक चेतना में बदल चुकी थी। भारत की धरती से उपजे विचार अब विश्व के हर कोने तक पहुँच चुके थे।

अमेरिका का सफर और “रजनीशपुरम” की कहानी

1981 में भारत सरकार के विरोध और विदेशी समर्थक की बढ़ती संख्या के कारण, ओशो ने अपने विचारों की वैश्विक यात्रा की शुरुआत अमेरिका से की। वहां उन्होंने अपने करीब 2500 अनुयायी के साथ मिलकर “रजनीशपुरम” नाम का एक पूरा शहर बसा दिया।

यह शहर ओशो के नियमों पर चलता था – जिसमें अपनी हवाई पट्टी और पुलिस व्यवस्था तक शामिल थी। ओशो के पास 90 से अधिक Rolls Royce कारें थीं। ओशो की बढ़ती लोकप्रियता और स्वतंत्र व्यवस्था ने अमेरिकी सरकार को चिंता में डाल दिया।

विवाद, गिरफ्तारी और निर्वासन

एक सुनियोजित साजिश ने ओरेगन राज्य में 751 लोग एक साथ फूड पॉइज़निंग का शिकार हो गए।, लेकिन इसके पीछे की परछाइयाँ गहरी थीं।, जिसका आरोप ओशो की शिष्य मां आनंद शीला पर लगा। उन पर जैविक हथियारों (biological weapons) का इस्तेमाल करके लोगों को जानबूझकर बीमार या खत्म करने की कोशिश के केस में कार्रवाई हुई और ओशो पर भी झूठ, धोखा, गलत दस्तावेज़ों के ज़रिए देश में घुसने,रहने,नागरिकता पाने की कोशिश का मामला बना।

1985 में उन्हें गिरफ्तार किया गया, जेल में डाला गया और बाद में अमेरिका छोड़ने का आदेश दिया गया। इसके बाद 21 देशों ने ओशो की एंट्री पर बैन लगा दिया।

दुनिया भर में भटकाव (1986–87):

अमेरिका से बाहर निकाल होने के बाद ओशो ने:

  • नेपाल, ग्रीस, उरुग्वे, जमैका, पुर्तगाल जैसे कई देशों में शरण लेने की कोशिश की,
  • लेकिन उन्हें हर जगह विज़ा से इनकार या जबरन निकाला गया।

लगभग 21 देशों ने उन्हें अंदर आने की अनुमति नहीं दी — इसे ओशो ने “वर्ल्ड वाइड पॉलिटिकल साजिश” कहा।

भारत वापसी और “ओशो” नाम की शुरुआत

29 जुलाई 1986 को : पुणे वापसी और आश्रम में नया जीवन:

29 जुलाई 1986 को में ओशो वापस भारत लौटे और पुणे आश्रम में फिर से बस गए। उन्होंने अपने नाम से “रजनीश” हटा दिया और खुद को ओशो कहलाना शुरू कर दिया।
ओशो का मतलब होता है – वो व्यक्ति जो अपने अहंकार से मुक्त होकर अस्तित्व के महासागर में डूब चुका है।

🔸 खुद ओशो ने इसके बारे में कहा था:

“Osho is not a name, it is a sound — to express the oceanic experience of existence.”
(ओशो कोई नाम नहीं है, बल्कि वह एक ध्वनि है — जो अस्तित्व के महासागर जैसे अनुभव को प्रकट करती है।)

आख़िरकार, ओशो भारत लौट आए और फिर से पुणे स्थित उनके पुराने आश्रम में बस गए। लेकिन इस बार आश्रम पहले जैसा नहीं रहा…

ध्यान और विज्ञान का मिलन

उन्होंने नए-नए ध्यान प्रयोग शुरू किए जैसे:

  • मिस्टिक रोज़ (Mystic Rose Meditation)
  • नो-माइंड थेरेपी
  • गिबरिश (Gibberish Meditation)

यह ध्यान सिर्फ शांति के लिए नहीं था, बल्कि भीतर की गहराई तक जाने का विज्ञान था।

ओशो की रहस्यमयी मौत

शारीरिक हालत बिगड़ने लगी:

  • ओशो की तबीयत दिन-ब-दिन गिरने लगी।
  • उन्होंने खुद कहा कि अमेरिका में जेल के दौरान उन्हें धीमा ज़हर (radiation poisoning) दिया गया था
  • उनका शरीर कमजोर हो रहा था, लेकिन चेतना और विचार पहले से भी ज़्यादा तेज़ थे।

🔚 1990: ओशो का शरीर छोड़ना (Samadhi):

  • 19 जनवरी 1990 को पुणे,भारत में अपने आश्रम में ओशो ने शरीर का त्याग किया (महापरिनिर्वाण)। उनका निधन 58 वर्ष की आयु में हुआ था
  • उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उनका शरीर पुणे आश्रम में समाधि स्थल पर रखा गया।
  • समाधि पर लिखा है: “Never Born, Never Died. Only Visited This Planet Earth Between Dec 11, 1931 – Jan 19, 1990”

19 जनवरी 1990 को ओशो की मृत्यु हो गई। लेकिन इस मौत के साथ कई सवाल जुड़ गए:

  • क्यों ओशो के निधन के कुछ ही घंटों के भीतर उनका दाह-संस्कार कर दिया गया।
  • क्यों नहीं हुआ पोस्टमार्टम?
  • क्यों उनकी मां को समय पर सूचना नहीं दी गई?
  • क्यों आखिरी समय में किसी को मिलने नहीं दिया गया?
  • क्या अमेरिका की जेल में उन्हें थैलियम स्लो पॉइज़न दिया गया था?

इन सवालों के जवाब आज भी अनसुलझे हैं।

ओशो ने मूर्तिपूजा का विरोध किया, अब खुद पूजे जाते हैं”

ओशो ने ज़िंदगीभर धर्म, कर्मकांड, और मूर्तिपूजा का विरोध किया। लेकिन आज उनके फॉलोअर्स उनकी तस्वीरों की पूजा करते हैं। वे कहते थे कि धर्म और राजनीति सिर्फ लोगों को कंट्रोल करने के हथियार हैं – और फिर भी, लोग उन्हें भगवान मानते हैं।

1. ओशो के विचार:

ओशो हमेशा से परंपरागत धर्म, कर्मकांड, और मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी रहे।
उन्होंने कहा था कि:

भगवान को मंदिरों में मत ढूंढो। वह तुम्हारे भीतर है।”

उन्होंने मूर्तियों को मौन, मृत और ठंडी चीजें कहा, जिनमें भावनाएं नहीं होतीं।
उनके अनुसार:

  • मूर्तिपूजा इंसान की भीतर की खोज को रोक देती है।
  • मंदिरों की जगह इंसान को अपने भीतर उतरने की जरूरत है।

2. लेकिन आज क्या हो रहा है?

  • पुणे आश्रम हो या विदेशी केंद्र – वहाँ ओशो की बड़ी-बड़ी तस्वीरों को फूल माला पहनाकर पूजा जाता है
  • अनुयायी उनके सामने अगरबत्ती जलाते हैं, मौन प्रार्थना करते हैं, जैसे वे किसी ईश्वर की मूर्ति हों।
  • उनके जन्मदिन पर भव्य समारोह, धूप-दीप आरती, तक की जाती है।

🔍 3. क्या यह विरोधाभास (contradiction) नहीं है?

हां, ये एक बड़ा विरोधाभास है।
जिसने ज़िंदगीभर कहा कि “किसी को पूजो मत, खुद को जानो”,
आज उसे ही पूजा जा रहा है।

➡️ ये इंसान की आदत है:
जब किसी की बातें समझ में नहीं आतीं, तो उसे देवता बना दो, फोटो टांग दो, और भूल जाओ कि उसने क्या कहा था।


🔥 ओशो ने एक बार खुद कहा था:

“मेरे मरने के बाद लोग मेरी मूर्तियाँ बनाएँगे, पूजा करेंगे — क्योंकि वो मेरे विचारों को जी नहीं पाएँगे।”

ये उनके दूरदर्शी और कटु सत्य की पहचान है।


🧘 असल में ओशो चाहते क्या थे?

  • वो चाहते थे कि लोग खुद से जुड़ें, ध्यान करें, प्रश्न पूछें
  • वो नहीं चाहते थे कि लोग उन्हें गुरु, भगवान या मसीहा की तरह पूजें।

विरोध और स्वीकार का अद्भुत संगम

ओशो की कहानी कोई साधारण कथा नहीं है। यह एक ऐसे इंसान की कहानी है जिसने दुनिया के सबसे कठिन सवालों पर विचार किया, खुलेआम बोला, और दुनिया को सोचने पर मजबूर कर दिया।

वे न किसी धर्म के हुए, न किसी राजनीति के।
विवादों के बाद भी उनके विचारों का असर आज भी जिंदा है।
और शायद यही कारण है कि 35 साल बाद भी लोग उन्हें सुनते हैं, मानते हैं, और पूछते हैं — “ओशो कौन थे?”

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